लाइफ स्टाइलसम्पादकीय

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस : समाज, विज्ञान और विकास

देवेंद्रराज सुथार

वैज्ञानिक अनुप्रयोगों के महत्व के बारे में संदेश फैलाने, मानव कल्याण के लिए विज्ञान के क्षेत्र में सभी गतिविधियों, प्रयासों और उपलब्धियों को प्रदर्शित करने और विज्ञान के विकास के लिए नई तकनीकों को लागू कर विज्ञान और प्रौद्योगिकी को लोकप्रिय बनाने जैसे उद्देश्यों को लेकर संपूर्ण देश में 28 फरवरी 1987 को ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ मनाने की परंपरा का शुभारंभ हुआ था।

दरअसल, इसी 28 फरवरी के दिन भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में सर सीवी रमन यानी चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने ‘रमन प्रभाव’ की खोज की थी जिसने पूरे विज्ञान जगत में तहलका मचा दिया था। इस खोज के लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। ज्ञातव्य रहे कि विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले वेंकटरमन पहले एशियाई थे। इस खुशी में विज्ञान के विकास को लेकर चिंतन, मनन और मंथन करने के लिए 1986 में नेशनल काउंसिल फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी कम्युनिकेशन ने भारत सरकार को 28 फरवरी को ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में नामित करने के लिए कहा।

बचपन का एक प्रश्न ‘समुद्र नीला क्यों है’ ने उनका पीछा बड़े होने तक नहीं छोड़ा, तो वेंकटरमन ने भी अपनी हार नहीं मानी। आखिर एक दिन नीले समंदर का रहस्योद्‌घाटन करके ही उन्होंने दम लिया और अपनी इस खोज से समूचे वैज्ञानिक जगत को आश्चर्यचकित कर दिया। उनकी इस महान खोज ने विज्ञान के कई ऐसे इन्हें रहस्यों की गुत्थी भी सुलझा दी, जो इससे पहले शायद सुलझ पानी संभव नहीं थी।

वेंकटरमन के महान वैज्ञानिक बनने के पीछे उनकी कभी न शांत होने वाली जिज्ञासु प्रवृत्ति और प्रोफेसर पिता की छत्रछाया व संस्कारों का महत्वपूर्ण योगदान था। जिस उम्र में बच्चे हंसी-मजाक व खेलकूद में अपना ज्यादातर समय जाया करते हैं, उस समय में वेंकटरमन जैसा बालक पूर्णत: गंभीरता से वैज्ञानिक खोज में तल्लीन रहता था। वे कहीं भी विज्ञान प्रयोगशाला व अन्वेषण संस्था का बोर्ड देखते तो दूसरे दिन उसमें खोज करने के लिए पहुंच जाते थे। यह कहें कि उन्होंने विज्ञान के लिए ही जन्म लिया था।

नि:संदेह, इस महान खोज के पीछे उनकी मेहनत और संघर्ष ही था जिसने उन्हें निरंतर अग्रसित किया। नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर भारत लौटने पर वेंकटरमन ने कहा कि ‘मेरे जैसे न जाने कितने रमन सुविधाओं और अवसर के अभाव में यूं ही अपनी प्रतिभा गंवा देते हैं। यह मात्र उनका ही नहीं, बल्कि पूरे भारत देश का नुकसान है। हमें इसे रोकना होगा।’

आजादी के इतने सालों बाद भी यह विज्ञान की प्रगति को लेकर मूल प्रश्न बनकर खड़ा है। 2019 के ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ की थीम ‘लोगों के लिए विज्ञान और विज्ञान के लिए लोग’ तो तब ही सफल हो पाएगी, जब अंधविश्वास के साये में जी रहा हमारा भारतीय समाज वैज्ञानिक सोच के साथ सोचना और समझना शुरू करेगा।

जब चांद पर पहुंचने की बात करने वाले लोग बिल्ली के रास्ता काटने पर अपना रास्ता नहीं बदलेंगे, कोई इंजीनियर और डॉक्टर अपनी कार में नींबू-मिर्च नहीं लगाएगा और लोग घरेलू क्लेश व अशांति का समाधान तांत्रिक की शरण में नहीं ढूंढने लगेंगे, तब जाकर देश में विज्ञान के लिए लोग समर्पित भाव से मुखर नजर आएंगे। जब हमारा समाज तर्क, तथ्य और सबूतों की बात पर विश्वास अधिक और झूठ, अफवाह और काल्पनिक बातों पर विश्वास करना बंद कर देगा तब देश में ‘विज्ञान दिवस’ मनाने की सार्थकता सिद्ध हो पाएगी।

हर बच्चे के अंदर एक छिपा हुआ वैज्ञानिक बैठा है लेकिन हमारी भारतीय शिक्षा प्रणाली कुछ ऐसी है कि स्कूल खत्म होते-होते उनमें छिपे वैज्ञानिक का गला घोंट उनमें डॉक्टर, इंजीनियर या मैनेजर बनने की चाहत बिठा दी जाती है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय संगठन क्लेरिवेट एनालिटिक्स ने दुनिया के सबसे काबिल 4,000 शोधकर्ताओं की सूची जारी की जिसमें अमेरिका 2,639 वैज्ञानिकों के साथ शीर्ष पर तो ब्रिटेन 546 वैज्ञानिकों और चीन 482 वैज्ञानिकों के साथ क्रमश: दूसरे व तीसरे पायदान पर रहे। इस सूची में भारत के केवल 10 शोधकर्ताओं के नाम शामिल हैं।

वहीं हमारे देश में विज्ञान के अध्ययन के लिए पर्याप्त संसाधन व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का नितांत अभाव होना है। सरकारी स्कूलों में विज्ञान संकाय है, तो प्रयोगशालाएं नहीं हैं। प्रयोगशालाएं हैं, तो शिक्षक नहीं हैं। इसलिए बेहतर वातावरण और महंगी फीस अदा करने में असक्षम मध्यम वर्ग से आने वाले छात्र चाहकर भी माध्यमिक शिक्षा पूरी होने के बाद विज्ञान संकाय न लेकर कला व वाणिज्य संकाय लेने के लिए विवश होते हैं।

हैरानी की बात यह है कि इन 10 भारतीय शोधकर्ताओं में केवल 1 ही महिला है। इसके पीछे एक नहीं, बल्कि कई कारण जिम्मेदार हैं। पहला तो हमारा देश वैज्ञानिक शोध व अनुसंधान पर बहुत ही कम खर्च करता है। भारत अपनी कुल जीडीपी का 0.63 प्रतिशत ही खर्च करता है। उससे भी दुखद बात यह है कि 2008-09 के बाद से यह खर्च कम ही हुआ है। शोध पर खर्च के मामले में भारत अपनी पंक्ति वाले देशों से भी काफी पीछे है। मसलन जहां विकसित देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा अनुसंधान एवं विकास पर खर्च करते हैं, वहीं ब्रिक्स देशों की तुलना में भी भारत का खर्च सबसे कम है। चीन अपनी जीडीपी का 2.05, ब्राजील 1.24, रूस 1.19 और दक्षिण अफ्रीका 0.73 प्रतिशत हिस्सा अनुसंधान एवं विकास पर खर्च करता है।

यदि हम भारत को विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ाना चाहते हैं, तो हमें शोध पर जीडीपी बढ़ानी होगी। स्कूलों में मध्याह्न भोजन की तरह विज्ञान के उपकरण भी उपलब्ध कराने होंगे। प्रयोगशालाओं पर ध्यान देना होगा। वैज्ञानिक प्रतिभाओं को बेहतर रोजगार व अवसर उपलब्ध कराकर उनका पलायन रोकना होगा। विज्ञान की तरफ छात्र आकर्षित हों, इसके लिए बेहतर वातावरण कायम करना होगा। विज्ञान संकाय के साथ पढ़ाई करने वाले छात्रों को छात्रवृत्ति का अधिकाधिक लाभ पहुंचाकर उनकी आगे की शिक्षा आसान करनी होगी। यूरोप, अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे वैज्ञानिक प्रगति वाले देशों से सीखना होगा कि उन्होंने ऐसा क्या किया कि आज वे हमसे आगे हैं।

Tags

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Close